RANCHI :- (शिवपूजन सिंह )– सियासत दो धारी तलवार हैं, जिसकी जद में कोई भी किधर से भी आ सकता है . यहां मिले सियासी जख्म कभी नहीं सूखते, बल्कि रह -रह कर ये दर्द उभर आता हैं. राजनीति सिर्फ सत्ता की होती हैं, यहां कोई सगा पराया नहीं होता. इसकी करवटें और उठा -पटक ही असली चेहरा और रंग होती है. अब झारखण्ड की जनता को तो ये सब देखने -सुनने की आदत सी हो गई. यह कहें यह शगल सरीखा बन गया है. मानो इसकी मिट्टी में ही सियासी हलचले लिपटी है. जहां थोड़ी सी हिचकिचाहट भी बड़ा बखेड़ा कर सकती है.
पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन की बगावती तेवर से यही तस्दीक करवाती है. सोचिये झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को वो नेता और वो चेहरा जो इस साल 3 जुलाई से पहले शिबू सोरेन परिवार का भरोसेमंद और करीबी हुआ करता था, जिसने झारखण्ड अलग राज्य के आंदोलन में शिबू सोरेन के साथ कदम से कदम मिलकर अदोलन की आग की मशाल जलाये रखी. आज वही चंपाई सोरेन हरे झंडे को छोड़कर भगवा झंडा थामने की तैयारी में है.
क्या कोल्हान टाइगर की इस बगावत की वजह मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन है ?. जिन्होंने जमीन घोटाले के आरोप में जेल से छूटने के पांच दिन के भीतर ही चंपाई सोरेन से मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन ली?. बेचारे चंपाई को बेआबरू होकर सिहासन छोड़ना पड़ा. उनके आँखों में आंसू और दिल में दर्द से वह तड़प उठे. उन्हें वफादारी के बदले मिले इस जख्म से आहत हो गए.
इसी का नतीजा रहा की आज तीर कमान छोड़कर कमल को हाथ में पकड़ने की नौबत आ गई.चंपाई ने इतने बड़े फैसले के पीछे आत्मसम्मान को लगी चोट को बताया. जिसके चलते आज इस मोड़ पर आना पड़ा और इशारों -इशारों में इसका जिम्मेदार हेमंत सोरेन को ठहराया.
चंपाई ने सोशल मीडिया में एक बड़ी चिट्ठी लिखी और उस अपमान, पीड़ा और दर्द को सिलसिलेवार तरीके से बताया. जिसमे उन्होंने लिखा एक गरीब किसान का लड़का और जेएमएम का एक समर्पित पार्टी कार्यकर्त्ता के साथ किस तरह सलूक किया गया, किस तरह उनकी बेज्जती की गई और किस तरह उनके गिरेबान को तार -तार कर दिया गया .
उन्होंने लिखा कि अचानक 3 जुलाई को विधायक दल की बैठक बुलाई गई और मेरे सारे प्रस्तावित कार्यक्रम रद्द करा दिए गए. मुझे मालूम भी नहीं था कि उन्हें इस्तीफा देना है और अचानक सबकुछ हो गया. उन्हें सत्ता का तनीक भी लोभ नहीं था. इसलिए बेझिझक सत्ता सौंप दी. उन्हें कुर्सी का मलाल नहीं था, बल्कि उनके आत्मसम्मान को गहरी चोट लगी, जिसे वो बर्दाश्त नहीं कर सके. इसी आत्मसम्मान ने उन्हें आत्ममंथन को मजबूर किया. जिसके चलते यह कदम उठाने के लिए विवश होना पड़ा.
हालांकि, अपने सोशल मीडिया पोस्ट में चंपाई ने कही भी हेमंत सोरेन का नाम नहीं लिया, लेकिन उनकी तरफ इशारा साफ और बेबाक था.विधानसभा चुनाव से पहले चंपाई के जाने से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के लिए एक तगड़ा झटका है, एक गहरा आघात और पार्टी के लिए एक नई चुनौती भी है.
सवाल हेमंत सोरेन पर यही उठेंगे कि आखिर उन्होंने जेल से छूटने के बाद इतनी हड़बड़ी मुख्यमंत्री बनने के लिए क्यों दिखाई? चंपाई जब सही से राज काज संभाल ही रहें थे, तो विधानसभा तक उन्हें मुख्यमंत्री बनाने में क्या दिक्क़त आ गई? प्रश्न यह भी उठेंगा कि क्या हेमंत सोरेन को सत्ता का इतना मोह और लोभ था?
दरअसल देखा जाए तो पिछलें पांच साल इंडिया गठबंधन के लिए बेहद चुनौतियां भरे रहें और अब आखिर -आखिर तक ये परेशानियों का लश्कर पीछा नहीं छोड़ रहा है.झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के लिए तो ये पांच साल इम्तिहान भरा ही रहा. हेमंत सोरन के जेल जाने से लेकर पार्टी के अंदर टूट, बगावत और बिखराव की बानगी ही दिखी. हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन का लोकसभा चुनाव में बीजेपी जाना. लोबिन हैंम्ब्रेम, चमरा लिंडा जैसे विधायकों के बागी तेवर से पार्टी के अंदर कलह ही उभरकर सामने आई है.
अब चंपाई सोरेन के पार्टी छोड़ने से पार्टी को गहरा और जोर से झटका लगा है. लाजमी है कि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का सारा दारोमदार अब हेमंत सोरेन के कंधे पर ही है. जहां उन्हें विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन कर खुद को साबित करना होगा कि उनका मुख्यमंत्री बनने का फैसला एक सही कदम था.अब देखना दिलचस्प यही है कि चंपाई सोरेन के इस बगवती और आक्रमक रुख का हेमंत क्या जवाब देते है.
इधर, चंपाई के भाजपा खेमे में आने से पार्टी को एक नई ताकत मिलेगी, एक बड़ा आदिवासी और जमीनी नेता बीजेपी को मिलेगा, जिनका कोल्हान इलाके में अच्छी पैठ और पकड़ मानी जाती हैं. चंपाई के बलबूते कोल्हान की कमजोर कड़ी विधानसभा चुनाव में भाजपा दुरुस्त करने की कोशिश करेगी. क्योंकि बीजेपी को सत्ता में आना हैं तो संताल और कोल्हान में ज्यादा से ज्यादा सीट जितनी होगी, तब ही सत्ता की राह आसान होगी.क्योंकि अभी तक ये दोनों क्षेत्र बीजेपी के लिए दुखती रग ही साबित हुई है.
चंपाई के आने से एक आवाज ये भी उठेगी कि भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करेगी, क्योंकि इसे लेकर भी एक आहट सुनाई पड़ रही है. अगर ऐसा होता है तो झारखण्ड भाजपा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी पिछड़ सकते है, क्योंकि अभी तक भाजपा की तरफ से सीएम की रेस में वह ही आगे रहें है. हालांकि, आगे क्या होगा ये देखने वाली बात होगी. लेकिन, ये तो हकीकत है कि कोल्हान टाइगर का बीजेपी की तरफ छलांग लगाना झारखण्ड की सियासत में चुनाव की इस दहलीज पर बहुत बड़ी सियासी पलटी है.