Ranchi :-(शिवपूजन सिंह ):-सत्ता का नशा और लालसा सियासत में एक ऐसी चीज़ है, जिसके सामने कुछ नहीं सूझता या फिर ये कहें कि कभी -कभी लाइलाज हो जाता है . सियासतदान इसकी चाहत में कुछ न कुछ तो गड़बड़ कर ही देते हैं. जिसके चलते टूट -फूट,बिखराव और बगावत की आहट सुनाई पड़ने लगती है. लाजमी है कि एक कुर्सी के लिए कई दावेदार पैदा होते है. इसमे किसी एक को खुशी और काईयों को पछतावा और मन मसोस कर रह जाना पड़ता है. दरअसल, सिंहासन चीज़ ही ऐसी होती है , जिसकी ख्वाहिश में सियासत होते रहती है. इतिहास इसका गवाह है और कई कहानियां इसकी तस्दीक करती हैं.और कई इबारत लिखी जा चुकी. सत्ता की सनक की खातिर क्या से क्या नहीं हो जाता है। झारखण्ड की राजनीति की मौज़ूदा तपिश को ही देख लीजिए.इसकी सरगर्मियां और सरगोशियां इन दिनों सुर्खरु हैं. पांच महीने चंपाई सोरेन को मुख्यमंत्री का ताज पहनने के बाद बेआबरू होकर बेअदबी से उतारना. झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के मौज़ूदा चीफ और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को लानत -मालामत करवा रहा है. विपक्ष के तेवर इस कदर तेज़ है कि जेएमएम पति -पत्नी, दलाल और बिचौलियों का दल बनकर रह गया है।कोल्हान टाइगर चंपाई का जाना और वो भी उम्र के उस दहलीज पर जहां इंसान संन्यास लेने की सोचता है. चार दशक तक हरा गमझा पहने और हराे झंडे तले जवानी और उम्र खापाई. आज उसी पार्टी में खुद को बेबस, लाचार और असहाय सिर्फ और सिर्फ मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए किया गया.क्या उनकी कुर्बानी और वफादारी कुर्सी के खातिर बेअसर हो गई?.
ये तमाम सवाल तो हेमंत सोरेन के लिए लाजमी है कि चुनाव की इस देहरी पर मुश्किल ही नहीं मुसबित बनकर सता रही है. चंपाई सोरेन ने तो तोहमतों की लम्बी फेहरिश्त सीएम हेमंत के खिलाफ खड़ी कर दी है और सवाल पर सवाल पूछ रहें है कि आखिर उनके साथ कुर्सी की खातिर ऐसा सुलूक क्यों किया गया?, चालीस साल बिताने के बाद भी भरोसो की डोर मजबूत क्यों नहीं बन पाई?, उनकी कुर्बानी को इज्जत क्यों नहीं मिली? आखिर दिल्ली तक उनकी जासूसी क्यों करवाई गई? क्या यही ईमानदारी और तिमारदारी का सिला मिलना था?.
हालांकि, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन चंपाई सोरेन के खिलाफ अभी तक कुछ भी नहीं बोले है, और इज्जत ही नवाजते आ रहें है बल्कि सारा ठीकरा इस सियासी पलटी के लिए भाजपा पर फोड़ रहे हैं. जेएमएम तंजिया अंदाज में इस कदर मुखर और मुख़ाल्फत कर रही हैं कि भाजपा वालों ने ही उनके घर को तोड़ा है. जिसका हिसाब आगामी विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता दे देगी.अगर देखा, समझा और परखा जाए तो हेमंत सोरेन कथित जमीन घोटाले के आरोप में जेल से छूटने के बाद कहीं न कहीं मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने के लिए जल्दबाजी और हड़बड़ी कर दी, अगर थोड़ा सब्र का दामन चुनाव तक पकड़े रहते तो शायद आज चंपाई सोरेन का पालाबदल नहीं देखना पड़ता?. एक माहौल और एक बयार तो आगामी चुनाव के लिए तो बना ही दिया था. कथित जमीन घोटाले में झारखण्ड हाई कोर्ट से ज़मानत मिलने के बाद तो उनका पलड़ा भारी दिखाई पड़ रहा था. वह अपनी जेल यात्रा को भाजपा की साजिश बताने और बीजेपी की आदिवासी विरोधी छवि गढने में कामयाब भी होते दिख रहें थे.
लेकिन, सीएम बनने की चाहत ऐसे हिलोरे मारने लगी की बना बनाया खेल खुद ही मानो बिगाड़ दिया हो. चंपाई सोरेन का पार्टी छोड़ने से एक माहौल तो खिलाफ बना हैं.आगामी विधानसभा चुनाव हेमंत सोरेन की असल अग्निपरीक्षा है. जहां इस महासंग्राम में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के अकेले खेवनहार का किरदार निभाना होगा.क्योंकि अगर पार्टी के अगल -बगल झांके तो हेमंत सोरेन से बड़ा चेहरा कोई नहीं दिखता है।वही, हेमंत के पिता और दिशोम गुरु शिबू सोरेन सेहत के चलते सक्रिय नहीं हैं। लिहाजा इस संग्राम में हेमंत सोरेन को ही अर्जुन की भूमिका में तीर -धनुष चलाना होगा।
वैसे चुनाव परिणाम के बाद ही मालूम पड़ेगा कि हड़बड़ी में हेमंत का मुख्यमंत्री बनना कितना सही और कितना गलत था. क्योंकि, लोकतंत्र में असल मालिक तो जनता ही होती, वही सही और गलत का फैसला करती हैं।